Monday, May 6, 2013

A Grieving Child's Rejoinder to the Priest

माँ की मृत्यु पर शोक
आत्मा अमर है
यह कह कर समझाते हो
दुखी मन का साहस बढाते हो
पर कहाँ हैं वो हाथ
जो मुझे खाना खिलाते थे
दुविधा में प्यार से सहराते थे 
चेहरे को छुपा कर हंसाते थे
पेंसिल से लिखना सिखाते थे
कहाँ हैं वो पैर
जो चल कर रात में अनेक बार
मुझे मेरे कमरे में देखने आते थे
हाथ पकड़ कर चलना सिखाते थे
बाज़ार से मेरे लिए खिलोने लाते थे
कहाँ हैं वो वाणी
जो मुझे लोरी सुनाती थी
गलती में डांट कर
सही दिशा दिखाती थी
सफलता में हर्ष से
फूली नहीं समाती थी 
कहाँ है वह शरीर मंदिर जिसमे
मेरी माँ की आत्मा दर्श दिखाती थी
वाणी से जीवन नाद बजाती थी
श्वासों से सुरभि फह्लाती थी
आत्मा को अजर अमर कहने से 
मेरा दिल नहीं बहलेगा
कर्मो का फल है कहने से
मेरी माँ की अकाल मृत्यु का
अन्याय न्याय में नहीं बदलेगा

No comments:

Post a Comment